— मछलीपालन, सब्जी बाड़ी लगाकर कर रही है डबरी के पानी का उपयोग
जांजगीर चांपा। सुबनबाई की उम्र जिस पडाव पर है उसमें शारीरिक रूप से कमजोरियां आ ही जाती हैं, लेकिन यह कमजोरियां सुबनबाई के हौंसले को नहीं डिगा सकी, बल्कि उनका विश्वास ही है जिसके बलबूते पर उन्होंने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के माध्यम से अपने खेत में निजी डबरी बनवाने का हौंसला दिखाया। आज उनकी निजी डबरी उनके बुढ़ापे का सहारा बन गई है। डबरी से मिले पानी से वह धान की फसल, सब्जी बाड़ी, मछलीपालन का कार्य कर रही है।
जांजगीर-चांपा की जनपद पंचायत बम्हनीडीह के ग्राम पंचायत परसापाली (च) में सुबनबाई महंत (80) वर्ष रहती है। उनके पास खेतीहर जमीन तो है, लेकिन फसलों को देने के लिए उनके पास पानी की कोई विशेष व्यवस्था न होने के कारण सूखी रह जाती थी, एक फसल ही वह भी वर्षा आधारित जल पर ही लेती आ रही थी, कभी भी वह दोहरी फसल लगाने के बारे में सोच भी नहीं पाती थी, लेकिन मजबूत इरादों की सुबनबाई को यह मंजूर नहीं था कि उनके खेत बगैर फसल के रहें, इसलिए उन्होंने रोजगार सहायक के माध्यम से महात्मा गांधी नरेगा से डबरी बनाने की मांग ग्राम पंचायत में रखी। तकनीकी स्वीकृति के बाद जनपद से जिला और फिर जिला से डबरी बनाने के लिए प्रशासकीय स्वीकृति के रूप में 1 लाख 28 हजार रूपए की मंजूरी दी गई। अपनी इच्छाशक्ति, परिवार एवं रिश्तेदारों की सहायता और मनरेगा के श्रमिकों से सुबनबाई ने अपनी निजी भूमि पर डबरी के रुप में पानी के साधन पा लिया। महात्मा गांधी नरेगा के 60 जॉबकार्डधारी परिवार ने मिलकर 606 मानव दिवस सृजित करते हुए काम को पूरा किया। डबरी बनने के बाद वर्षा उपरांत उसमें पानी संग्रहित हुआ तो सुबनबाई ने मछली के बीज डालकर मछली पालन का कार्य शुरू किया, अब तक वह तीन से चार बार मछली को डबरी से निकाल चुकी हैं। साथ ही डबरी के आसपास सब्जी-भाजी लगाकर अतिरिक्त आय अर्जित की। निजी डबरी में मिले पानी की बदौलत सुबनबाई जो खेती में रिश्तेदारों से मिली सहायता से निश्चिंत हो गई खुशहाली के साथ जीवनयापन करने लगी। वर्तमान में वह खरीफ की फसल की तैयारी कर रही हैं। उनकी इस पहल ने गांव के दो और किसानों को प्रेरित किया। गांव के नानकचंद्र साहू, चोभीलाल बरेठ ने भी अपने खेत में डबरी का निर्माण कराया।
जिंदगी जीने के लिए लड़ना पड़ता हैः सुबनबाई
सुबनबाई अतीत की यादों में खोकर बताती हैं कि जब उनके पति स्व श्री अधीनदास महंत थे तो खेती किसानी को लेकर कोई चिंता नहीं करनी पड़ती थी वही सब देखते थे, उनके साथ मैं मदद करवाती थी, लेकिन उनकी मृत्यु हो जाने के बाद खेती कौन करेगा यह समस्या सामने थी। एक लड़का अर्जुनदास महंत नौकरी करने के लिए दूसरे शहर में रहता है, तो छोटे लड़के घनश्याम दास महंत की पांच साल पहले मृत्यु हो गई। लड़के की मृत्यु के गम ने सुबनबाई को कमजोर बना दिया था, अतीत की यादों के झरोखों से जब वह बाहर आई तो बताने लगी कि जिंदगी जीने के लिए लड़ना पड़ता है, और इन समस्याओं को परे रखते हुए खेती एवं परिवार की जिम्मेदारी संभाली। जिंदगी को जीने के लिए उनके पास सिर्फ खेत ही उनके पास थी, जिसे देखकर वह कहती हैं कि महात्मा गांधी नरेगा से निजी डबरी बनने के बाद उनके परिवार एवं रिश्तेदारों के जीने का सहारा है, वह बताती हैं कि इस उम्र में खेती किसानी करना तो मुश्किल हैं, रिश्तेदारों के सहारे वह खेती, बाड़ी एवं मछलीपालन का कार्य करवा रही हैं, जिसके सहारे वह अपनी आगे की जिंदगी को सुगमता के साथ काट रही हैं।